लेख:
जातीय हिंसा ::
हर साल 01 जनवरी को महाराष्ट्र के पुणे जिले के भीमा-कोरेगाँव में दलितों के द्वारा शौर्य दिवस मनाया जाता है, जिसमें हजारों की संख्या में दलित समुदाय के लोग कोरेगाँव के जयस्तंभ के चारों ओर एकत्र होते हैं। 01 जनवरी 2018 को विजय दिवस के 200 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में जलसा मनाया जानेवाला था, जिसके लिए दलित समुदाय के लोगों में खासा उमंग थी।
इतिहास पर नजर डालें, तो 01 जनवरी 1818 को अंगे्रजों और पेशवा द्ध खेलों के मध्य हुए युद्ध में अंगे्रजी सेना ने पेशवाओं को बुरी तरह से हरा दिया था। इतिहासकारों के अनुसार, फिरंगी सेना में बड़ी संख्या में महार जाति के लोग सैनिक थे। कहा जाता है कि पेशवाओं को हराने में महार जाति के सैनिकों ने अदम्य साहस और अनपेय शौर्य का अद्भुत प्रदर्शन किया था।
स्वरूप में, वे पेशवाशाही और ब्राह्मणशाही से बेहद खफा थे, जिन्होंने हिंदू-समाज को वर्ण-व्यवस्था की जंजीर में बेतरह जकड़ रखा था। रूपवान, महार जाति पूरी तरह पददलित, अपित व अपमानित महसूस कर रही थी और सदियों पुरानी दुवर््यवस्था में बदलाव के लिए छटपटा रही थी।
यह गुलाम भारत का इतिहास है। लेकिन, नए साल के पहले दिन कतिपय मराठाओं और दलितों के बीच गंभीर वाद-विवाद में एक व्यक्ति की मौत हो गई, जिससे भीड़ उग्र और हिंसक हो उठा। हिंसक भीड़ ने कहाँ-तान पथराव किया। गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया। चक्का जाम किया, जिससे राज्यभर में अशांति फैल गई।
फिर ओछी राजनीति ने अपना खेल खेला। दोनों ओर से दोनों समुदायों को भड़काना गया। राज्य में दूसरे दिन यह हिंसा पूणे सहित मुंबई, अहमदनगर और अन्य क्षेत्रों में फैल गई है।बेकसूरों की जानमाल पर बन आई। राज्य को हजारों करोड़ की क्षति उठानी पड़ी।
जिस समाज मे ंटुच्ची राजनीतिक चालों से वोट खरीदे और बेचे जाते हों और जहां जाति आधारित सियासत से लोग देखते-देखते विधायक व सांसद बनकर अपना उल्लू सीधा करने लगते हैं, वहां जातीय हिंसा की आग में राष्ट्रीय संपति झूठा, कोई नई बात नहीं। है।
यह हमने गुजरात चुनाव मे ंप्रत्यक्ष देखा और महसूसा है कि कैसे लोग आंदोलनों का सहारा लेकर राजनीतिक रोटियां सेंकने लगते हैं।]
इस देश में दलित समाज के लोग सकल जनसंख्या में 21 प्रतिशत हैं। ये किसी राज्य में ज्यादा हैं, तो किसी में कम हैं। यह वर्ग महाराष्ट्र में 14 प्रतिशत, यूपी में 21 प्रतिशत, तो पंजाब में 32 प्रतिशत हैं।
इसी अनुपात में देश-प्रदेश के लोकसभा-विधानसभा और स्थानीय निकायों में सीटों का आरक्षण है।इतना ही नहीं, ये सरकारी नौकरी व प्रमोशन, कोटा-परमिट, लायसेंस व अन्य क्षेत्रों में भी आरक्षण का असर दत्त है।
बावजूद इसके, आजादी के 70 साल बाद भी इनकी दशा में सुधार सुधार न होने, चिंता व गहन शोध का विषय है कि आखिरकार उनके हक को किसने मारकर इन कुंठित कर रखा है? जो उग्र और आक्रोशित होकर समाज को जातीय हिंसा की ज्वाला में झोंककर नुकसान पहुंचाने की सोच रखते हैं।
उनके साथ पहले जो हुआ, उसका भरपाई किया जाना, नामुमकिन है। हालांकि, कुछ आरक्षण के प्रयास जारी है। यह बात महामहिम राष्ट्रपति सहित तमाम दलित नेता और बुद्धिजीवी जानते भी हैं और सिद्दत से महसूसते भी हैं।
इसी के साथ मराठों व ब्राह्मणों को भी ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहिए, जो उनकी अस्मिता और गरिमा के खिलाफ हो। खासकर, मराठा समुदाय को तो कतई हिंसा का रास्ता अख्तियार नहीं करना चाहिए। क्योंकि उनका इतिहास रहा है। उन्होंने मुगलों से लोहा लेकर मराठा और हिंदू संस्कृति की रक्षा की है। यही कारण है कि शिवाजी और अन्य मराठे वीरपुरुष केवल महाराष्ट्र में ही नहीं, देशभर में सम्मानीय हैं।
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